BA Semester-3 DarshanShastra - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

अध्याय - 13

काण्ट का नीतिशास्त्र

(Kant's Ethical Theory)

 

प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।

उत्तर -

काण्ट का नीतिशास्त्र की महत्ता में दृढ़ विश्वास था। नैतिक नियम बुद्धि के आदेश हैं और अन्य नियम इच्छाओं से प्रेरित होते हैं। इच्छाओं से प्रेरित नियम केवल वैधानिक आदेश हैं। वे बाह्य परिणाम और सुखानुभूति पर निर्भर हैं। संवेदनशील जीवन के नियम बौद्धिक नियमों के विरुद्ध हैं। बाह्य ध्येय केवल सांकेतिक आदेश ही दे सकता है। जैसे धन कामना कोई अहैतुक आदेश नहीं हो सकता। वह व्यक्ति की परिस्थिति और योग्यता पर निर्भर है।

परन्तु इसके विपरीत नैतिक नियम बौद्धिक नियम होने के कारण अहैतुक आदेश हैं। उनमें अपवाद के लिए कोई स्थान नहीं है और सभी अवस्थाओं में उनका पालन होना ही चाहिए, इसलिए वे आदेश हैं। अन्य आदेश अनुभव पर आधारित हैं। नैतिक आदेश अनुभवपूर्ण हैं। वे 'क्या' से नहीं बल्कि 'चाहिए' से संबंधित हैं वे तथ्यात्मक नहीं बल्कि आदेशात्मक हैं।

काण्ट के अनुसार नैतिक सिद्धान्त अहैतुक आदेश है। इसका पालन बिना किसी शर्त के होना चाहिए। काण्ट का मत है कि व्यावहारिक बुद्धि या अन्तःकरण पर अपने आप लागू किये जाने वाले नैतिक सिद्धान्त ही आदेश हैं। इन नियमों का पालन बिना किसी फल की आशा रखे करना चाहिए। ये नियम स्वयंसाध्य हैं, न कि किसी अन्य लक्ष्य के साधन। काण्ट का मत है कि "यह अहैतुक है क्योंकि यह बिना किसी की अपेक्षा या शर्त के है। यह आदेश है क्योंकि यह वह आज्ञा है जिसका पालन करना ही चाहिए। दूसरे आदेश सापेक्ष अनुभवजन्य तथा पश्चात् के होते हैं। अपना कर्तव्यपालन करना ही अहैतुक आदेश है जो बुद्धिजन्य और अनुभवपूर्ण है।

आदेश दो प्रकार के होते हैं- पहला, सापेक्ष आदेश और दूसरा, अहैतुक आदेश सापेक्ष आदेश सुख की प्राप्ति के लिए आदेश का पालन है। अहैतुक आदेश वह है जो किसी अन्य साधन या लक्ष्य की सिद्धि का साधन नहीं कहा जा सकता। यह आदेश स्वयंसाध्य रहता है, यह कभी साधन नहीं बन सकता। इसका पालन बिना किसी शर्त के या बिना किसी लक्ष्य की आशा रखे होना चाहिए। यहाँ काण्ट का विचार प्रयोजनवादी न होकर वैधानिक हो जाता है।

काण्ट के अनुसार हमें नैतिक भावनाओं पर कभी नैतिकता को आधृत नहीं करना चाहिए। ये भावनाएँ हमारे तर्कों में दोष ला देती हैं। इसलिए हमें सदैव इन भावनाओं पर नियन्त्रण रखते हुए केवल बुद्धि के आदेश के अनुसार ही कर्म करना चाहिए। काण्ट के अहैतुक आदेश में भावना, इच्छा, आकांक्षा, वासना आदि का कोई महत्व नहीं है। काण्ट हमेशा इनके दमन का आदेश देते हैं। इसलिए इनके मत को 'कठोरतावाद' भी कहा जाता है।

काण्ट ने कर्तव्य के लिए कर्तव्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। नैतिक जीवन स्वशासित जीवन है। नैतिक आदेश व्यावहारिक बुद्धि के आदेश हैं। जीवन का लक्ष्य सद्गुण है न कि सुख। कर्तव्य, कर्तव्य के लिए का अर्थ होता है कि हमें कर्म केवल कर्तव्य की भावना से करना चाहिए। किसी फल की आशा रखकर किया गया कर्म नैतिक दृष्टिकोण से कभी उचित नहीं माना जा सकता। काण्ट सुखवादियों के मत का घोर खंडन करते हैं। उनका मानना है कि सुख प्राप्ति और दुःख निवारण के लिए ही कर्म करना चाहिए। काण्ट के अनुसार कर्म करना हमारा धर्म है। निष्काम कर्म ही हमारा आदर्श है। कर्म को कर्तव्य के रूप में ही करना चाहिए, इसके परिणाम पर विचार नहीं करना चाहिए। यदि कोई पूँजीपति नाम कमाने के लिए गरीबों में भोजन वितरित करवाता है तो उसके कर्म को नैतिक दृष्टि से पतित कहा जाएगा। कर्तव्यपालन प्रत्येक दशा में होना चाहिए। 

अब प्रश्न उठता है कि कौन-सा संकल्प बिना शर्त के शुभ कहा जा सकता है। इसका स्पष्ट उत्तर काण्ट के शब्दों में इस प्रकार हैं- "केवल शुभ संकल्प ही बिना किसी शर्त के शुभ है। अन्य संकल्प ऐसे हैं जो किसी साध्य की सिद्धि के साधन हैं। इसलिए इसे शुभ कहा जाता है। धन शुभ है क्योंकि यह आराम का साधन है। सन्तान शुभ है, यह किसी अन्य का साधन नहीं बन सकता। यह स्वयं मूल्यवान है। शुभ संकल्प एक ऐसा रत्न है, जो अपने ही प्रकाश से प्रकाशित रहता है। शुभ संकल्प ही परम मंगलमय है। नैतिक जीवन स्वशासित जीवन है। नैतिक आदेश व्यावहारिक बुद्धि के आदेश हैं। जीवन का ध्येय सद्गुण है न कि सुख। नैतिक जीवन में भावना के लिए कोई स्थान नहीं है। काण्ट के अनुसार किसी के दुःख से दुःखी होकर उसकी सहायता करना नैतिक नहीं है। कर्मों का मूल्य उसके परिणाम पर निर्भर होकर उसकी सहायता हेतु पर निर्भर है। वह उसके हेतु पर निर्भर है। कर्म करने में केवल एक ही प्रेरक कारण हो सकता है और वह है - नैतिक नियम के प्रति उसकी आस्था। कर्तव्य तथा प्रेम सहानुभूति या मोहवश नहीं बल्कि केवल कर्तव्य के लिए किये जाने चाहिए। कर्तव्य में बाध्यता है। उसका आदेश परम् है। वह व्यक्ति की इच्छा, अनिच्छा पर निर्भर नहीं है। अन्य आदेश में कार्यकारण सम्बन्ध मिलता है। नैतिक नियमों का कार्यकारण सम्बन्ध से कोई मतलब नहीं है। वह न तो अनुभव पर आधारित है, न अनुभव उसको प्रमाणित ही करते हैं। नैतिक नियम सार्वभौम है। कर्तव्य सभी परिस्थितियों में अनिवार्य है।

आलोचना -

(क) जेकोबी के अनुसार काण्ट का संकल्प ऐसा संकल्प है जो कोई संकल्प नहीं करता। संकल्प विषयहीन नहीं हो सकता। काण्ट के नैतिक नियम केवल आधार मात्र हैं। उसके नियमों से यह नहीं ज्ञात होता कि विशेष परिस्थितियों में हमारा क्या कर्तव्य है।

(ख) कर्तव्य के लिए कर्तव्य का सिद्धान्त एक मनोवैज्ञानिक द्वैत पर आधारित है। काण्ट बुद्धि और भावनाओं को परस्पर विरुद्ध मानता है। वह यह भूल जाता है कि ये दोनों ही आत्मा के अभिन्न अंग हैं। संवेगशीलता ही नैतिक जीवन का वस्तु-विषय है। उसके बिना कोई भी कार्य संभव ही नहीं है। प्रत्येक कार्य का कोई न कोई प्रेरक कारण अवश्य होता है।

(ग) नैतिक जीवन से भावना का पूर्ण बहिष्कार कर देने से काण्ट का मत कठोर हो गया है। उसने भावनाओं का कठोर निग्रह करने का आदेश दिया है, परन्तु इस प्रकार का अनुभूति- शून्य जीवन एकांगी हो जायेगा। आत्म-लाभ ही सर्वोच्च श्रेय है और अनुभूतियों को निकाल देने से वह उस सीमा तक असम्भव हो जायेगा। कठोरतावाद सुखवाद के समान ही एकांगी है। पूर्णतावाद में दोनों की ही चरम परिस्थिति है।

(घ) नैतिक नियम को सर्वथा निरपेक्ष मानकर काण्ट किसी भी अपवाद की आज्ञा नहीं देते। परन्तु कुछ बातें तो अपवाद होने के कारण ही श्रेष्ठ होती हैं। ब्रह्मचर्य सभी पालन नहीं कर सकते। सभी के पालन करने से स्वयं ब्रह्मचारियों का भी लोप हो जायेगा क्योंकि सृष्टि की उत्पत्ति रुक जायेगी। परन्तु अपवाद होने पर भी ब्रह्मचर्य को सभी श्रेष्ठ मानते हैं।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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