बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 13
काण्ट का नीतिशास्त्र
(Kant's Ethical Theory)
प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
उत्तर -
काण्ट का नीतिशास्त्र की महत्ता में दृढ़ विश्वास था। नैतिक नियम बुद्धि के आदेश हैं और अन्य नियम इच्छाओं से प्रेरित होते हैं। इच्छाओं से प्रेरित नियम केवल वैधानिक आदेश हैं। वे बाह्य परिणाम और सुखानुभूति पर निर्भर हैं। संवेदनशील जीवन के नियम बौद्धिक नियमों के विरुद्ध हैं। बाह्य ध्येय केवल सांकेतिक आदेश ही दे सकता है। जैसे धन कामना कोई अहैतुक आदेश नहीं हो सकता। वह व्यक्ति की परिस्थिति और योग्यता पर निर्भर है।
परन्तु इसके विपरीत नैतिक नियम बौद्धिक नियम होने के कारण अहैतुक आदेश हैं। उनमें अपवाद के लिए कोई स्थान नहीं है और सभी अवस्थाओं में उनका पालन होना ही चाहिए, इसलिए वे आदेश हैं। अन्य आदेश अनुभव पर आधारित हैं। नैतिक आदेश अनुभवपूर्ण हैं। वे 'क्या' से नहीं बल्कि 'चाहिए' से संबंधित हैं वे तथ्यात्मक नहीं बल्कि आदेशात्मक हैं।
काण्ट के अनुसार नैतिक सिद्धान्त अहैतुक आदेश है। इसका पालन बिना किसी शर्त के होना चाहिए। काण्ट का मत है कि व्यावहारिक बुद्धि या अन्तःकरण पर अपने आप लागू किये जाने वाले नैतिक सिद्धान्त ही आदेश हैं। इन नियमों का पालन बिना किसी फल की आशा रखे करना चाहिए। ये नियम स्वयंसाध्य हैं, न कि किसी अन्य लक्ष्य के साधन। काण्ट का मत है कि "यह अहैतुक है क्योंकि यह बिना किसी की अपेक्षा या शर्त के है। यह आदेश है क्योंकि यह वह आज्ञा है जिसका पालन करना ही चाहिए। दूसरे आदेश सापेक्ष अनुभवजन्य तथा पश्चात् के होते हैं। अपना कर्तव्यपालन करना ही अहैतुक आदेश है जो बुद्धिजन्य और अनुभवपूर्ण है।
आदेश दो प्रकार के होते हैं- पहला, सापेक्ष आदेश और दूसरा, अहैतुक आदेश सापेक्ष आदेश सुख की प्राप्ति के लिए आदेश का पालन है। अहैतुक आदेश वह है जो किसी अन्य साधन या लक्ष्य की सिद्धि का साधन नहीं कहा जा सकता। यह आदेश स्वयंसाध्य रहता है, यह कभी साधन नहीं बन सकता। इसका पालन बिना किसी शर्त के या बिना किसी लक्ष्य की आशा रखे होना चाहिए। यहाँ काण्ट का विचार प्रयोजनवादी न होकर वैधानिक हो जाता है।
काण्ट के अनुसार हमें नैतिक भावनाओं पर कभी नैतिकता को आधृत नहीं करना चाहिए। ये भावनाएँ हमारे तर्कों में दोष ला देती हैं। इसलिए हमें सदैव इन भावनाओं पर नियन्त्रण रखते हुए केवल बुद्धि के आदेश के अनुसार ही कर्म करना चाहिए। काण्ट के अहैतुक आदेश में भावना, इच्छा, आकांक्षा, वासना आदि का कोई महत्व नहीं है। काण्ट हमेशा इनके दमन का आदेश देते हैं। इसलिए इनके मत को 'कठोरतावाद' भी कहा जाता है।
काण्ट ने कर्तव्य के लिए कर्तव्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। नैतिक जीवन स्वशासित जीवन है। नैतिक आदेश व्यावहारिक बुद्धि के आदेश हैं। जीवन का लक्ष्य सद्गुण है न कि सुख। कर्तव्य, कर्तव्य के लिए का अर्थ होता है कि हमें कर्म केवल कर्तव्य की भावना से करना चाहिए। किसी फल की आशा रखकर किया गया कर्म नैतिक दृष्टिकोण से कभी उचित नहीं माना जा सकता। काण्ट सुखवादियों के मत का घोर खंडन करते हैं। उनका मानना है कि सुख प्राप्ति और दुःख निवारण के लिए ही कर्म करना चाहिए। काण्ट के अनुसार कर्म करना हमारा धर्म है। निष्काम कर्म ही हमारा आदर्श है। कर्म को कर्तव्य के रूप में ही करना चाहिए, इसके परिणाम पर विचार नहीं करना चाहिए। यदि कोई पूँजीपति नाम कमाने के लिए गरीबों में भोजन वितरित करवाता है तो उसके कर्म को नैतिक दृष्टि से पतित कहा जाएगा। कर्तव्यपालन प्रत्येक दशा में होना चाहिए।
अब प्रश्न उठता है कि कौन-सा संकल्प बिना शर्त के शुभ कहा जा सकता है। इसका स्पष्ट उत्तर काण्ट के शब्दों में इस प्रकार हैं- "केवल शुभ संकल्प ही बिना किसी शर्त के शुभ है। अन्य संकल्प ऐसे हैं जो किसी साध्य की सिद्धि के साधन हैं। इसलिए इसे शुभ कहा जाता है। धन शुभ है क्योंकि यह आराम का साधन है। सन्तान शुभ है, यह किसी अन्य का साधन नहीं बन सकता। यह स्वयं मूल्यवान है। शुभ संकल्प एक ऐसा रत्न है, जो अपने ही प्रकाश से प्रकाशित रहता है। शुभ संकल्प ही परम मंगलमय है। नैतिक जीवन स्वशासित जीवन है। नैतिक आदेश व्यावहारिक बुद्धि के आदेश हैं। जीवन का ध्येय सद्गुण है न कि सुख। नैतिक जीवन में भावना के लिए कोई स्थान नहीं है। काण्ट के अनुसार किसी के दुःख से दुःखी होकर उसकी सहायता करना नैतिक नहीं है। कर्मों का मूल्य उसके परिणाम पर निर्भर होकर उसकी सहायता हेतु पर निर्भर है। वह उसके हेतु पर निर्भर है। कर्म करने में केवल एक ही प्रेरक कारण हो सकता है और वह है - नैतिक नियम के प्रति उसकी आस्था। कर्तव्य तथा प्रेम सहानुभूति या मोहवश नहीं बल्कि केवल कर्तव्य के लिए किये जाने चाहिए। कर्तव्य में बाध्यता है। उसका आदेश परम् है। वह व्यक्ति की इच्छा, अनिच्छा पर निर्भर नहीं है। अन्य आदेश में कार्यकारण सम्बन्ध मिलता है। नैतिक नियमों का कार्यकारण सम्बन्ध से कोई मतलब नहीं है। वह न तो अनुभव पर आधारित है, न अनुभव उसको प्रमाणित ही करते हैं। नैतिक नियम सार्वभौम है। कर्तव्य सभी परिस्थितियों में अनिवार्य है।
आलोचना -
(क) जेकोबी के अनुसार काण्ट का संकल्प ऐसा संकल्प है जो कोई संकल्प नहीं करता। संकल्प विषयहीन नहीं हो सकता। काण्ट के नैतिक नियम केवल आधार मात्र हैं। उसके नियमों से यह नहीं ज्ञात होता कि विशेष परिस्थितियों में हमारा क्या कर्तव्य है।
(ख) कर्तव्य के लिए कर्तव्य का सिद्धान्त एक मनोवैज्ञानिक द्वैत पर आधारित है। काण्ट बुद्धि और भावनाओं को परस्पर विरुद्ध मानता है। वह यह भूल जाता है कि ये दोनों ही आत्मा के अभिन्न अंग हैं। संवेगशीलता ही नैतिक जीवन का वस्तु-विषय है। उसके बिना कोई भी कार्य संभव ही नहीं है। प्रत्येक कार्य का कोई न कोई प्रेरक कारण अवश्य होता है।
(ग) नैतिक जीवन से भावना का पूर्ण बहिष्कार कर देने से काण्ट का मत कठोर हो गया है। उसने भावनाओं का कठोर निग्रह करने का आदेश दिया है, परन्तु इस प्रकार का अनुभूति- शून्य जीवन एकांगी हो जायेगा। आत्म-लाभ ही सर्वोच्च श्रेय है और अनुभूतियों को निकाल देने से वह उस सीमा तक असम्भव हो जायेगा। कठोरतावाद सुखवाद के समान ही एकांगी है। पूर्णतावाद में दोनों की ही चरम परिस्थिति है।
(घ) नैतिक नियम को सर्वथा निरपेक्ष मानकर काण्ट किसी भी अपवाद की आज्ञा नहीं देते। परन्तु कुछ बातें तो अपवाद होने के कारण ही श्रेष्ठ होती हैं। ब्रह्मचर्य सभी पालन नहीं कर सकते। सभी के पालन करने से स्वयं ब्रह्मचारियों का भी लोप हो जायेगा क्योंकि सृष्टि की उत्पत्ति रुक जायेगी। परन्तु अपवाद होने पर भी ब्रह्मचर्य को सभी श्रेष्ठ मानते हैं।
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